अपने भी, बेगाने भी रिश्ते मगर निभाने भी
सिर्फ परेशाँ जाते हैं
मन्दिर भी, मैख़ाने भी
क्या ख़ूबी से बोले है
सच्चे लगैं बहाने भी
उनकी क्या मजबूरी थी
बात भी की, पहचाने भी
अबके ईदी नहीं मिली ”हामिद” को दो आने भी
पवन दीक्षित
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1 comment:
उनकी क्या मजबूरी थी
बात भी की, पहचाने भी
sir ji bahut achhi ghazal hui hai...aur ye sher....mujhe bahut pyaara lagaa...!!
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