Wednesday, April 23, 2008

होने लगा

दिन ब दिन ख़ुशहाल ये जो मेरा घर होने लगा
हो न हो, माँ की दुआओं का असर होने लगा

तब कहाँ था तू बता, जब दूर थी मंज़िल मेरी
आज मंज़िल पास है तो हमसफ़र होने लगा
यार हम दोनों को ही ये दुश्मनी महंगी पड़ी
रोटियों का ख़र्च तक बन्दूक पर होने लगा
तंग-दस्ती में सभी, मिलने से कतराने लगे
मांग लूंगा कुछ मदद, सबको ये डर होने लगा
साफ़ कह दे गिला कोई गर है
फ़ैसला, फ़ासले से बेहतर है
कौन अपना है इस ज़माने में
बेहतरी है, न आज़माने में
उनके कहे से हो गया जो बदगुमान तू
पूरी न कर सकेगा, परिन्दे उड़ान तू

रोयेंगे तेरे साथ में, हँस देंगे बाद में
किनको सुनाने बैठ गया दास्तान तू

रहता है जिस मकान में तेरा नहीं है वो
बदलेगा जाने और भी कितने मकान तू
मुझसे ख़फ़ा हैं, तुझपे मेहरबान हैं,तो फिर
बोलेगा भला क्यों न अब, उनकी ज़बान तू
हँस के करे है बात, तो कुछ बात है ज़रूर
होवे, बग़ैर बात, भला मेहरबान तू
पवन दिक्षित

Sunday, April 13, 2008

आदमी बे-ज़बान लगता है
दर्द की दास्तान लगता है

अबके चौकस रहूंगा मैं यारो
फिर से वो मेहरबान लगता है

है हकीक़त में इक ख़ला ख़ाली ... जो तुझे आसमान लगता है
ख़ला = शून्य
क्यों तसल्ली दे, क्यों बहाने दे
अब मेरी आस टूट जाने दे

इतनी लम्बी जिरह से बेहतर है
तू उसे फ़ैसला सुनाने दे

लौट आयेगा वो, उसे अपने
दोस्तों को तो आज़माने दे

Wednesday, April 9, 2008

कोई ज़िद भी नहीं करते, कहा भी मान लेते हैं
मेरी मजबूरियाँ शायद, ये बच्चे जान लेते हैं

सहारा दे के, जो गाते फिरें सारे ज़माने में
भला उन दोस्तों का हम कहाँ एहसान लेते हैं
पवन दीक्षित
कोई ज़िद भी नहीं करते, कहा भी मान लेते हैं
मेरी मजबूरियाँ शायद, ये बच्चे जान लेते हैं

सहारा दे के, जो गाते फिरें सारे ज़माने में
भला उन दोस्तों का हम कहाँ एहसान लेते हैं
पवन दीक्षित

Saturday, April 5, 2008

मुद्दतों बाद

मुद्दतों बाद इक नज़र देखा
चाहते तो न थे मगर देखा
खुद ब खुद पास आ गई मन्ज़िल
जब मेरा जज़्बाए-सफ़र देखा
खुद की कमियाँ नज़र नहीं आईं
आईना यूँ तो उम्र भर देखा