Monday, January 28, 2008

गर नहीं आते

तेरी बातों मे गर नहीं आते हम कभी लौट कर नहीं आते
है बुरा वक़्त तो मेरे अपने
दूर तक भी नज़र नहीं आते
मेरे कस्बे मे रोज़गार नहीं
वरना तेरे शहर नहीं आते
जिनका बचपन क़फ़स मे बीता हो
उन परिन्दों के पर नहीं आते
वफ़ा की शक्ल मे दग़ाबाज़ी
मुझको तेरे हुनर नहीं आते
मैं भी सुकरात हो गया होता
लोग ले कर ज़हर नहीं आते
हाल घर का न छुप सका शायद
अब भिखारी भी घर नहीं आते
पवन दीक्षित

1 comment:

हरिमोहन सिंह said...

पवन जी अपना पूरा परिचय दीजिये अपने profile में ।
आपकी लाइनें बहुत बहुत अच्‍छी लग रही है
और comment देने में word varification दिककत कर रहा है